वार्ड आरक्षण पर निर्णय हाईकोर्ट में लंबित.. आज-कल में फैसला संभव
श्रीकंचनपथ न्यूज
भिलाई। सत्तारूढ़ दल कांग्रेस ने नगरीय निकाय चुनाव का बिगूल फूंक दिया है। पूरे तामझाम के साथ पार्टी के नेता व कार्यकर्ता चुनाव मैदान में कूद चुके हैं। इसके विपरीत भाजपा में रहस्यमयी खामोशी है। पार्टी के बड़े नेताओं में आपसी प्रतिद्वंद्विता छिपी हुई नहीं है। इससे जमीनी कार्यकर्ता हतोत्साहित है और दूरी बनाकर चल रहे हैं। कांग्रेस व भाजपा के बीच के इस अंतर को बारीकी से समझें तो कांग्रेस के लिए मैदान साफ नजर आता है।
चुनाव के ऐन पहले भाजपा के भीतर बिखराव और मनमुटाव कई गुटों में बँटी भाजपा के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। भाजपा के जिला संगठन पर फिलहाल सांसद सरोज पाण्डेय गुट का कब्जा है। ऐसे में वार्ड टिकट की उठापटक और महापौर का चेहरा तय करने में संगठन-गुट की भूमिका बेहद अहम् होगी। इस परिस्थिति में सांसद विजय बघेल और पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय का क्या रूख होगा, इस पर सबकी नजरें लगी है।
यूं तो भाजपा के पास महापौर पद के लिए चेहरों की कोई कमी नहीं है, किन्तु किस चेहरे पर दांव लगेगा, इसका पूरा-पूरा दारोमदार वार्डों के आरक्षण पर टिका है। प्रशासनिक तौर पर आरक्षण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, किन्तु मामला क्योंकि फिलहाल कोर्ट में लंबित है, इसलिए कई निवृत्तमान पार्षद, संगठन से जुड़े नेता और अपने आकाओं के समर्थक अपने आपको प्रोजेक्ट करने में लगे हैं। क्योंकि भाजपा के भीतर संगठन का महत्व ज्यादा होता है, इसलिए महापौर के दावेदार आंतरिक तैयारियों को आगे बढ़ा रहे हैं।
अगर ये हुआ तो ऐसा और वो हुआ तो वैसा की तर्ज पर महापौर टिकट के दावेदार अपना-अपना गुणा-भाग लगा रहे हैं। इनमें कई ऐसे चेहरे भी हैं, जिन पर पार्टी ने कभी भरोसा नहीं जताया। बावजूद इसके वे लगातार पार्षद निर्वाचित होते रहे हैं। पार्टी के नेताओं ने जिन्हें पार्षद टिकट के काबिल नहीं समझा, अब ऐसे लोग पार्षद चुनाव जीतने के बाद का गुणा-भाग लगा रहे हैं। वहीं सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि चुनाव में संगठन खेमे की चली तो बाकी गुटों की प्रतिक्रिया क्या होगी?
दुर्ग जिले की भाजपाई राजनीति में भिलाई की गुटबाजी शीर्ष पर रहती आई है। पिछले विधानसभा चुनाव में प्रेमप्रकाश पाण्डेय की पराजय इसी गुटबाजी का नतीजा थी। महापौर चुनाव के दौरान भी पिछली दफा पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। इसीलिए पार्टी के समर्पित लोगों की मंशा है कि बड़े नेता इस बार आपसी गुटबाजी और मनमुटाव छोड़ दें तो रास्ते आसान हो जाएंगे। हालांकि यह उतना सहज नहीं है।
जिले में राज्यसभा सांसद सरोज पाण्डेय का खासा दखल है। सुश्री पाण्डेय यह कतई बर्दाश्त नहीं करतीं कि उनके कामकाज में कोई और नेता हस्तक्षेप करे। ऐसे में टिकट वितरण की बैठकी में इस बार भी वही होने की संभावना है, जो हर बार होता रहा है। सुश्री पाण्डेय के समर्थक उत्साहित हैं और अपनी टिकट को लेकर आश्वस्त भी। शायद यही वजह है कि दूसरे-तीसरे पक्ष में सन्नाटा पसरा हुआ है।
दावेदारों को आरक्षण पर फैसले का इंतजार
टिकट दावेदारों को आरक्षण पर हाईकोर्ट में लंबित फैसले का इंतजार है। भले ही प्रशासन ने वार्डों का आरक्षण पहले ही करा लिया, किन्तु फिलहाल यह मामला कोर्ट में है और उसके फैसले पर काफी कुछ निर्भर करता है। राज्य निर्वाचन आयोग और सरकार की तैयारियों से यह स्पष्ट है कि चुनाव तारीख का ऐलान जल्द ही हो सकता है। ऐसे में पार्षद चुनाव जीतकर महापौर बनने का ख्वाब देखने वालों का भविष्य आरक्षण पर हाईकोर्ट के फैसले पर ही टिका हुआ है। कई दावेदार लम्बे समय से वार्डों में सक्रिय है। ऐसे लोगों की सबसे बड़ी चिंता है कि आरक्षण में बदलाव के चलते उनकी सारी तैयारियां धरी न रह जाए। इसके लिए फार्मूला-बी भी तैयार है। अपना वार्ड आरक्षण की चपेट में आया तो आसपास के वार्डों पर भी नजर है, वहीं महिला आरक्षण की स्थिति में माँ, पत्नी आदि को भी लड़ाया जा सकता है।
सरकार बदलने के बाद ठंडे पड़े नेता
प्रदेश में जब तक भाजपा की सरकार रही, क्षेत्र के कई नेताओं की पौ-बारह रही। हर कोई अपने आपको मुख्यमंत्री और मंत्रियों का करीबी बताता रहा। इनमें छुटभैय्ये पार्षद भी शामिल थे, किन्तु कांग्रेस की सरकार आने के बाद भाजपा के ये नेता अपने घरों तक सीमित होकर रह गए। मजे की बात है कि इनमें कई ऐसे पार्षद भी थे, जो अपने को विधानसभा टिकट का दावेदार बताते रहे। पिछले करीब ढाई वर्षों से उनका कोई अता-पता नहीं है। अब जबकि चुनाव करीब है, ऐसे लोग घर से बाहर निकल रहे हैं। क्योंकि अब उनके सिर पर सत्ता का हाथ नहीं है, इसलिए जाहिर तौर पर उनकी अपेक्षाएं स्थानीय दिग्गजों से बढ़ गई है।
भाजपा संगठन निरूत्साहित
ऐसे समय में जबकि चुनाव की तारीखों का ऐलान कभी भी हो सकता है, भाजपा संगठन खुद निरूत्साहित है। सवाल यह है कि आखिर घर बैठे, नाराज कार्यकर्ताओं में उत्साह कौन भरेगा? भिलाई भाजपा में गुटबाजी का असर ये है कि आम मतदाताओं के बीच उसकी पैठ लगातार कमजोर होती गई, लेकिन इससे सबक लेने की बजाए पार्टी के नेता अपने-अपने गुटों को मजबूत करने में जुटे रहे। विधानसभा चुनावों में पराजय के बाद भी संगठन में गूंगे-बहरों का बोलबाला रहा, जो अपने नेता से पूछे बिना मीडिया से बात तक करने में कतराते हैं। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय संगठन की चुनाव नतीजों में क्या भूमिका होगी?