पटना (एजेंसी)। बिहार चुनाव में फिर पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल के सहारे है। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार कांग्रेस और राजद दोनों ने महागठबंधन में अपनी-अपनी सीटों की संख्या बढ़ाकर अपना-अपना कद तो बढ़ा लिया लेकिन सहयोगियों मुकेश सहनी और झामुमो की सीटों पर स्थिति साफ नहीं की। यही कारण था कि महागठबंधन के बीच सीटों के एलान के दौरान ही बगावत दिखी। पिछली बार कांग्रेस 44 सीटों पर लड़ी थी और 27 जीती थी। इस बार महागठबंधन में कांग्रेस सीटों के मामले में फायदे रही और उसे 70 सीटें मिली हैं। यानी 26 सीटों का फायदा। साथ में उपचुनाव में वाल्मीकिनगर लोकसभा सीट भी। ठीक इसी तरह राजद पिछली बार 101 सीटों पर लड़ा था और 85 सीटें जीती थी। इस बार राजद ने अपने लिए 144 सीटें ली हैं लेकिन इसमें वीआईपी और झामुमो को भी सीटें देनी थी। जाहिर है यदि दस-बारह सीटें कम भी होतीं तो भी राजद सीटों के मामले में फायदे था। इसकी एक वजह यह भी है कि इस बार जदयू महागठबंधन का हिस्सा नहीं है।
तीन दशकों से जमीन खिसकती चली गई
1990 के आसपास से कांग्रेस की बिहार में लगातार जमीन खिसकती चली गई। 1989-90 के दौरान मंडल और कमंडल आंदोलनों का मिजाज भापने में कांग्रेस नाकाम रही और पार्टी ने अपना जनाधार खो दिया। अब कांग्रेस को बचाए रखने में लालू प्रसाद की बड़ी भूमिका है। ये बेमेल गठबंधन दोनों की मजबूरी भी है।
1980 में कांग्रेस ने विरोधियों को धूल चटा दी थी
1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 169 सीटें जीतीं थीं। 1985 में तो 196 सीटें जीतकर कांग्रेस ने विरोधियों को धूल चटा दी लेकिन ठीक पांच साल बाद मंडल और कमंडल आंदोलनों ने राजनीति बदल दी। कांग्रेस की बड़ी हार हुई। 1990 के चुनाव में कांग्रेस की मात्र 72 सीटों पर जीत हुई। 1995 में कांग्रेस 29 सीटों पर सिमट गई। लालू ने कांग्रेस की जमीन ऐसी खिसकाई कि आज अब उसे उनकी ही जमीन की दरकार पड़ रही है।
1998 के लोकसभा चुनाव में जमीन खोने का अहसास
1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को एहसास हो गया कि वह अपनी जमीन खो चुकी है। भाजपा को रोकने के नाम पर कांग्रेस ने उसी से समझौता किया जिसने कांग्रेस के पांवों तले से जमीन खींच ली थी। कांग्रेस ने लालू प्रसाद के राजद से समझौता किया। 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव दोनों ने साथ लड़ा लेकिन 2000 का विधानसभा चुनाव साथ नहीं लड़ सके। समझौता टूटा और कांग्रेस ने सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। कांग्रेस के महज 23 उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके। यह कांग्रेस की तब तक की सबसे बड़ी हार थी। राजद ने 124 सीटें जीतीं।
राजद अब कांग्रेस की मजबूरी भी
कांग्रेस को अपनी गलती का एहसास हुआ और चुनाव बाद वह राजद के साथ आ गई। बिहार में राजद-कांग्रेस की सरकार बनी। पूरे दस साल बाद कांग्रेस सत्ता तक पहुंची जरूर लेकिन सरकार में सहयोगी बनकर। 2005 में भी कांग्रेस राजद के साथ मिलकर ही मैदान में उतरी लेकिन इसके महज 9 उम्मीदवार चुनाव जीत सके। कांग्रेस की सबसे बुरी हालत 2010 में हुई। कांग्रेस-राजद गठबंधन फिर टूट गया और 243 सीटों पर मैदान में उतरी कांग्रेस को मात्र चार सीटों पर जीत मिली। इस चुनाव में राजद को भी झटका लगा। राजद के मात्र 22 उम्मीदवार जीत पाए। इसी चुनाव ने यह तय कर दिया कि राज्य में कांग्रेस और राजद एक-दूसरे के लिए आस भी हैं और गले की फांस भी। कांग्रेस यह समझ गई कि राजद से अलग होकर उसका वजूद नहीं है। राजद भी समझ गया कि भले ही कांग्रेस खुद बड़ी जीत हासिल नहीं कर सके लेकिन अकेले लड़कर वह राजद को बड़ा नुकसान जरूर पहुंचा सकती है। 2015 में दोनों दलों ने एक बार फिर गठबंधन किया। कांग्रेस ने 27 सीटें जीतीं और राजद ने 80 सीटें। जाहिर है ये गठबंधन बना रहे ये दोनों की जरूरत भी है और मजबूरी भी।