पशुधन और पारंपरिक खेती जैविक उत्पाद का आधार है
जगदलपुर। छत्तीसगढ़ सहित बस्तर संभाग को भी धान का कटोरा कहा जाता है। बदलते समय के साथ धान की मिंजाई का परंपरागत तरीका विलुप्त होते जा रहा है। इसके स्थान पर आधुनिक मशीने ट्रेक्टर और थ्रेसर लेने लगी है। बस्तर संभाग में आज भी परंपरागत तरीके से धान का मिंजाई करने का यह तरीका जिसमें पशुधन से धान की मिंजाई की जाती है, अब सिर्फ बस्तर के गांवो में ही बची हुई है। पशुधन और परंपरागित खेती को बचाये बिना जैविक खेती की परिकल्पना नहीं की जा सकती है।
बस्तर संभाग के अधिकांश गांवों में खेती की पुरानी परंपरागत तरीके अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुके है। नयी तकनीकों ने कृषि में उत्पादन एवं सरलता को नये आयाम तो दिये ही हंै, लेकिन बस्तर संभाग के अंदरूनी गांवों में परंपरागत तरीके से धान की मिंजाई का कार्य आज भी किसान करते देखे जा सकते हैं। पशुधन के माध्यम से धान की मिंजाई का कार्य किया जाना जैविक कृषि के लिए अत्यंत आवश्यक है। जिसे संरक्षित करने की दिशा में शासन को समुचित कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। बगैर पशुधन के जैविक कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती है।
ट्रैक्टर के प्रयोग ने गोवंश की उपयोगिता को खत्म किया तो वहीं धान मिंजाई में भी गोवंश का स्थान ट्रेक्टर और थ्रेसर ने ले लिया है। बस्तर संभाग में आज भी खेती की पुरानी परंपरागत तकनीक प्रचलित है। ट्रैक्टर की सुलभता के कारण हल से खेत की जुताई निंदाई के दृश्य तो अब कम ही दिखते है किन्तु गांवों में धान मिंजाई का काम अभी भी पशुधन के जरिये ही किया जाता है। बस्तर का जैविक उत्पाद बस्तर के नाम से देश ही नहीं विदेशों तक अपनी पहचान रखता है। बस्तर के नाम पर बहुत से उत्पाद हाथों-हाथ बड़ी कीमत पर बड़े शहरों में बेचे जा रहे हैं। इसके अलावा बस्तर के जंगलों में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले आयुर्वेद की दवायें भी देश विदेश तक ख्याति प्राप्त है। बस्तर के जैविक खेती को बचाने के लिए प्रयाप्त अवसर और साधन उपलब्ध हैं। पशुधन का संरक्षण छत्तीसगढ़ की सरकार करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसके क्रियान्वयन के लिए यह आवश्यक है कि बस्तर की पारंपरिक खेती को संरक्षण के साथ ही पशुधन के संरक्षण के दिशा में उचित कार्य करने की आवश्यकता है। बगैर पशुधन के जैविक खेती की कल्पना नहीं की जा सकती है।
राकेश पांडे
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